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Sunday, December 14, 2014

सर्द एहसास!




दीवार पर घड़ी की टिक-टिक
अब आग़ोश में ले लेती है
छत पर टंगे पंखे के डैनों की आवाज़ को
ख़ामोशी जैसे ऐसी सौगात हो
जिसे रात नज़्र करके गई हो
खिड़कियों पर परदे हिलते हैं
तो जिस्म सिहर जाता है
बाहर सर्द हवाओं ने दस्तक दी है
मौसम ने फ़िर से करवट ली है शायद,
सारी तपिश जैसे कलम ने ज़ब्त कर लिया हो
स्याही से सफ़्हे सुलगते से हैं
असर तल्ख़ सा होने लग जाता है सुखन का
लोग मानिंद धूप के आते हैं
हरारत भी साथ लाते, पर
एक हिस्सा मेरा फ़िर भी गलन में
तिल-तिल कर दम तोड़ता
काश! तुम कुहरे के चादरों तले सिमटे
मेरे बेहाल,बेज़ार हर्फ़ पढ़ते
काश! तुम उस हिस्से को
मुकम्मल सी एक ज़िन्दगी देते

Monday, December 01, 2014

एक क़तरा : ज़िन्दगी

Picture Courtesy : Google  



                      
ज़िन्दगी
शबनम के शफ़्फ़ाफ़ क़तरे सी
किसी सुबह एक ज़र्द पत्ते पर
यूँ सर रखे कुछ नासाज़ मिली
शायद अर्श से फ़र्श तक के
सफ़र और रास्तों से ख़ाइफ़ थी
जिस्म तप रहा था
आँखें बेसबब बन्द हुई जाती थीं
सब पिछले वाक़यात सिलसिलेवार
किसी किताब के पन्नों के मानिंद
ज़हन पर दस्तक देने लगे
मानो जैसे हश्र का दिन हो
कुछ कहे पर मलाल
कुछ अनकहे पर सवाल
हालातों से हलकान कभी
ख़ुशियों पर इत्मिनान भी कभी
गाहे-बगाहे पाकीज़गी की आज़माईश भी
ख़ुद को खोने-पाने की गुँजाइश भी थी
तभी एक सफ़हे पे निगाह थमी
वो मुड़ा-तुड़ा सा ज़रूर था
हर्फ़ भी जैसे बेतरतीब बिखरे पड़े
किन्हीं ज़हनसीब हाथों के लम्स को
उम्र भर के तरसे हुए थे
शायद कोई क़रीब आते-आते
फ़ासलों में गुम हुआ था
तभी महक अब तलक उन्हीं
सफ़्हों में क़ैद है
ख़ैर,ये कारवाँ कब रुके हैं
जो तब रुकते
एक अन्जाम तो लाज़मी था
वही जो कभी फ़िज़ाओं की शोख़ी से
लरजते पत्तों पर खिलखिलाती बूँदें
वही जो आज ज़मीं पे ज़र्द पड़े
पत्ते पे बेज़ुबान पर शायद सुक़ूँमंद बूँदें
यही तो तक़्मील उस बूँद की थी
फ़लक के अब्र से ज़मीं की तहों तक

Saturday, July 26, 2014

एक ग़ज़ल..

सफ़्हे सुकून-ए-रूह, जिस्म हाशिया हुआ
ग़ज़लों में भी तुम्हारा ग़ैर का न मैं हुआ

हर क़दम पर थी रंजिश,सितम सफ़र भर रहा
दिए को तमाम उम्र जलाती रही दुआ 

फूलों को न बख़्शा जहाँ कलियों को भी मसला
गुलशन का हमनफ़स कोई गुलफ़ाम न हुआ

जब भी मिला साहिल से अन्दाज़ और था
आब-ए-रवाँ का अपना कोई ताउम्र न हुआ

दिन हश्र के भी यूँ सर धुन रहे हो अब
मिल गया है ग़र जवाब फ़िर सवाल क्या हुआ

बदल जाने को अब 'विवेक' रवायत ही जान लो
साया भी सर-ए-राह मुस्तक़िल नहीं हुआ

Sunday, June 22, 2014

कोई बात अब चले..


सेहरा हो ग़ुलशन हो 
सितारों का बज़्म हो 
दूर ख़यालातों से परे कहीं एक रिश्ता तो पले 
कोई बात अब चले,

एक आस कभी टूटे 
कोई पास होकर रूठे 
कश्मकश में उलझे धागों का कोई छोर तो मिले 
कोई बात अब चले,

न सोज़-ए-दिल से धुआँ उठे 
न अरमाँ बेबस जले 
तबीब बनकर चाक जिगर के कोई अब तो सिले 
कोई बात अब चले,

ख़िज़ा का वार ख़ाली हो 
दुआ देता हुआ वो माली हो 
चमन में आरज़ूओं के कोई फूल तो खिले 
कोई बात अब चले । 


Friday, April 04, 2014

एक ग़ज़ल

मकाँ का हश्र देखकर कैफ़ियत समझ लिया 
वो कहते हैं दीवार-ओ-दर तो यूँ बेज़ुबान है 

तुमपर हया की बन्दिश, मैं फ़ितरत का मारा हूँ 
कुछ ऐसी अपने इश्क़ की ये दास्तान है 

कभी ज़िल्लत कभी शोहरत कभी नेकी कभी बदी 
हर एक शख्स यहाँ खुद में कहीं परेशान है 

एक रिहायशी बस्ती थी कभी अपनों के शहर में 
किसी रक़ीब का भी अब जहाँ न नाम-ओ-निशान है 

इन मख़मली असाईशों की तुमको बेकली मुबारक हो 
हमें सुकूँ की चादरों तले ही इत्मिनान है 

निगाह-ओ-दिल से गुजरेंगे वही काग़ज़ पर बिखरेंगे 
मैं शायर हूँ मेरी तहरीर का एक ईमान है । 

Saturday, March 08, 2014

'औरत'




कभी रग़-ए-ख़ून 
कभी क़तरा-ए-अश्क 
कभी मुस्कुराहटों की हसीं तासीर है 'औरत'

कभी हिजाबों की रौनक़ 
कभी हया की शोख़ी 
कभी ज़लज़लों से दो-चार होती शमशीर है 'औरत'

कभी जद्दोज़हद की आँधी 
कभी समन्दरों का सुकून 
कभी सियाह अब्रों पे खिंचती चाँदी की लकीर है 'औरत'

कभी बादा-ए-इश्क़ 
कभी नग़मा-ए-वफ़ा 
कभी ग़ज़लों की बेइंतहाँ पीर है 'औरत'

कभी रानाई कुदरत की 
कभी रोशनी चिरागों की 
कभी तर्जुमों से परे होती बेनज़ीर है 'औरत'

कभी आबरू की मिसाल 
कभी तहज़ीबों का आईना 
कभी मुर्दा इन्सानियत को जगा दे वो ज़मीर है 'औरत' 

कभी ख़लाओं की हसरत 
कभी दुआओं का करिश्मा 
कभी मुफ़लिसी में साथ देती कोई हीर है 'औरत'

कभी कुछ अनकहे मिसरे 
कभी दम भरते अशार 
कभी शायरों के दिलों में धड़कती तहरीर है 'औरत'

Sunday, February 02, 2014

एक सवाल

क़तरा अश्क़ का आँखों से बग़ावत सा कर गया 
तेरी पनाहों में महफ़ूज़ हूँ तो बहाता क्यूँ है 

मक़बूल करके बेनियाज़ी तमाम सालों की 
अब हर लम्हे में उसी काफ़िर को सजाता क्यूँ है 

सितम तूने दिए इतने कि बदन ख़ाक हो गया 
आतिश-ए-इश्क़ से उन्हें फ़िर तू  जलाता क्यूँ है 

बड़ा बेपीर और संगदिल रहा है हमदम मेरा 
खुली बाँहों से तू  फ़िर इश्क़ लुटाता क्यूँ है 

कमनसीबी मेरी या कि लकीरों का ऐब है 
सदाएँ दे कर उन्हें फ़िर भी बुलाता क्यूँ है 

सुकूँ का सफ़ीना बहा तो बहता चला गया 
हर एक मौज को ज़िन्दगी तू बताता क्यूँ है 

जहाँ इंसानों का तसव्वुर फ़िज़ूल है 
वहाँ फ़रिश्तों को तू ज़हन में लाता क्यूँ है 

मुमकिन नहीं दिखता हाल-ए-दिल का बयाँ अब 
कभी लबों कभी लफ़्ज़ों को फ़िर आज़माता क्यूँ है 

अन्दाज़-ए-बयाँ औरों से मुख्तलिफ़ है ज़रा सा 
फ़िर रोशनी में 'विवेक' तू आता क्यूँ है । 

Sunday, January 19, 2014

एक ग़ज़ल


गुफ़्तगू में अब मैं जिरहों से परहेज़ करता हूँ 
ख़त्म होने के बाद कम्बख्त बहुत याद आते हैं 

भरे महफ़िल में उनकी रुस्वाई नागवार जाती है 
लोग फ़ब्तियां कसते तन्ज़ बरसा के जाते हैं 

क़ुर्बतें सिसकती हैं जब रिश्ते तल्ख़ होते हैं 
उल्फ़तों में फ़ासलों के ज़िक्र आ ही जाते हैं 

माँ जैसा कोई जहाँ में ढूँढना फ़िज़ूल है 
ग़मगीनियत में तोलो जो और रिश्तों में आते हैं 

काफ़िये को ढील दी तो यूँ ग़ज़लें मचल गईं 
तहरीरों से शाद दिल को वो फ़िर  दुखा के जाते हैं 

तमाम बस्तियों के तंग कूचों से यूँ गुरेज़ नहीं है 
तंगदिली से ज़हन-ओ-दिल पर वो सितम ढा ही जाते हैं 

ख़ानाबदोश दिल की वो आवारा उलझनें 
सिलसिलेवार उनके ख्वाब सब सुलझा के जाते हैं 

तुम मुझसे छुपाते हो अपने दिल के ज़ख़्म 
कभी ग़ज़लों कभी नग़मों से वो नज़र आ ही जाते हैं 

ऐ मेरे सोज़ तू कोई और आशियाँ तलाश ले 
वो अब दिल में ही रहेंगे जो ख्वाबों में आकर जाते हैं । 

Sunday, September 01, 2013

एक ग़ज़ल



आज भी वफ़ा को सीने में दबाए हम 
मोहब्बत का पुरसुकून सितम माँगते हैं | 

जिस्म जला रूह जली ख़्वाब जल गए 
मुफ़लिसी में अब एक नज़र-ए-करम माँगते हैं | 

लोग बेपरवाह थे सर-ए-बाज़ार में हबीब 
चन्द रातों में तुम्हारे हिज्र की जलन माँगते हैं | 

तुमने बेरुख़ी के सिवाय कुछ भी नहीं दिया 
बेख़ुदी में डूबा फ़िर भी दीवानापन माँगते हैं | 

तन्हाई में अब दिल के वो साज़ नहीं छिड़ते 
नज़्मों ग़ज़लों से रोशन वही अन्जुमन माँगते हैं | 

जहाँ के मखमली लिबासों में कोई जँचता ही नहीं अब 
हिजाब से सजा तुम्हारा रुख़ पे  पैरहन माँगते हैं | 

ऐसा नहीं कि कोई चेहरा निगाहों से नहीं गुज़रा 
हसीं शोख़ी से लबरेज़ वही बाँकपन माँगते हैं | 









Tuesday, June 11, 2013

एक हादसा..!!


                                      कल रात छत पर
                                      फलक की जानिब
                                      टकटकी बाँधे
                                      सियाह चादरों तले
                                      सितारों का खेल देखा
                                      कुछ मद्धिम कुछ उजले
                                      कुछ सर उठाए कुछ कुचले
                                      सब अपनी रोशनी में
                                      छुपे अंधेरों पर
                                      रोते-बिलखते से दिखे
                                      जब शायर ने
                                      किसी नाज़नीं के निगाहों
                                      को सितारा लिखा था
                                      सारे कैसे एक साथ
                                      मुस्कुराए थे,
                                      तभी अचानक
                                      एक हादसा हुआ
                                      हाँ, हादसा ही तो था
                                      धू-धू कर मेरे अरमान जले थे
                                      ख्वाबोँ का बेरहम क़त्ल हुआ था
                                      चाँद पर भी शायद खून सवार था
                                      तभी एक सितारा दूर कहीं
                                      मेरे नाम का टूटा था
                                     और
                                     सभी ने सोचा
                                     कोई दुआ क़ुबूल हुई ।

Saturday, June 01, 2013

ख़ामोश मेहरम..!!





कुछ बोलो मत
ख़ामोशी को यूँ रग़ों में
बेपरवाह बहने दो,
बहने दो कि जब तक
क़तरे-क़तरे का जुनून
हर एक नब्ज़ पर काबिज़ है
मैं लबों से फूटे कुछ हर्फ़ों के बजाय
तुम्हारे रूह के तिलिस्म को
तोड़ना चाहता हूँ
खोलना चाहता हूँ
उन तमाम गिरहों को
जो हमारे दर्मियान साँस लेते हैं
भीगना चाहता हूँ
उन बेमौसम बारिशों में
जो क़ुदरत को भी बेमानी कर दें
डूबना चाहता हूँ
उस रोशनी में
जो मेरी बेज़ुबान रातों का नूर है
फ़ासलों के एहसास से
इसे सुफ़ैद रहने दो
एक अल्फाज़ भी निकला
तो रिश्ता मैला हो जाएगा
कुछ बोलो मत
तुम लहर दर लहर
यूँ बढ़ती जाओ
मैं बूँद बूँद घुलकर
उन निशानों पर बहूँगा
जो कभी तुम्हारे थे
तुम कुछ बोलो मत
कुछ मत बोलो ।

Friday, May 03, 2013

एक नज़्म


कतार में खड़ी शामें
उफ़क़ के परे कहीं पिघलती हुई
अपने मायनों की तलाश में
डूबती सी हैं ,
जब हाशिए पर खड़ा मैं
हर्फों पर पेबंद लगा
नज़्मों के लिबास पर
ज़रा इतरा सा जाता हूँ
पर आज जब दरीचे खोले
तो आँखें भिंची रह गयी
 रुख फ़लक के जानिब था
और वो पेबंद बर्फ़ की तरह साफ़
और सितारे की तरह रोशन दिखे
नज़्म को कई बार टटोला
और कलम के तर्जुमें में तोला भी
तब एक टीस उठी
कि कोई आह ना जुम्बिश
मेरी नज्में सिसकती क्यों हैं  ।

Sunday, April 28, 2013

एक मौत


आज ख़यालों के पतवार से
उस सफ़ीने को जब
समन्दर के आग़ोश में उतारा
तो दूर कहीं ढलती शाम के
अक्स में ख़ुद का ही
एक ज़र्द बेबस चेहरा
थमती नब्ज़ों पर
कहीं टकटकी लगाए
गुमसुम सा बैठा था ,
कब तक कुछ बेजान थपकियों भर से
उसकी रंगत सहेजता ,
क़तरा-क़तरा साँस-साँस
एक नूर मद्धिम सी होती जान पड़ती है
अब जब ज़िन्दगी मुझ पर
फ़िकरे कसती
मेरा मखौल उड़ाती है
तब एक मुकम्मल एहसास होता है
कैसे एक संजीदा ख़याल
दम तोड़ता है
और मैं इस 'मौत' का
तमाशबीं खुद होता हूँ ।

Monday, December 31, 2012

एक वो रात ऐसी थी..





रुख्सार पर भी उसके मुस्कुराहटें थीं खेलती
हुजूम-ए-अश्क़ से तर दामन था एक वो रात ऐसी थी ।

चिराग-ए-मुर्दा था वहाँ इन्सानियत का अक्स
रोशनी भी थी शर्मसार एक वो रात ऐसी थी ।

एक  बेजान होती चीख़ और वो आह-ए-आतशी
आबरू थी बेहिजाब एक वो रात ऐसी थी ।

बेपरवाह था शहर औ नुक्कड़ों पे कानून के वो बुत
बने सब बेहया तमाशबीं एक वो रात ऐसी थी ।

चन्द एक हंगामों से सही हम ज़मीर के हमज़बाँ हुए
धधकती अब तलक है आग एक वो रात ऐसी थी ।

बाद-ए-मर्ग के भी पाँव कफ़न में है हिल रहा
फ़रिश्ते भी थे कश्मकश में एक वो रात ऐसी थी।

करो एक पल तो एहसास वो ख़लिश-ए-ख़ार  ऐ अहले वतन
हमसे ही कुछ रुख्सत हुआ एक वो रात ऐसी थी ।

Monday, October 22, 2012

डरता हूँ मैं..

 


                                                 वो हँसी वो शरारतें तेरा वो संजीदापन
                                                 तेरा साया भी मुझसे दूर हो तो डरता हूँ मैं ।

                                                 तेरे एहसास  मेरे तहरीर में यूँ रवाँ-गवाँ हैं
                                                 तू जो ख़ामोश हो पल भर को तो डरता हूँ मैं ।

                                                 लाख हमदर्द मेरे ग़म को कहीं बाँट भी लें ग़र 
                                                 न हो  हाथों में तेरा हाथ तो डरता हूँ मैं  ।

                                                मेरे ख़्वाबों में तेरे साथ तमाम ज़िन्दगी जियूँ
                                                पर तेरी आहट को भी हूँ महरूम तो डरता हूँ मैं ।

                                                मेरी रूह को सर-बसर है तेरे उल्फ़त की आरज़ू
                                               मयस्सर और को है ये सोच के डरता हूँ मैं  ।

                                              मेरे पहलूनशीं होकर तू जब हाल-ए-दिल कहती है
                                              बेरहम पल वो जब गुज़रे तो डरता हूँ मैं  ।

                                              बेबस मेरी निगाहों को है तेरे विसाल की हसरत
                                              तू आकर भी चली जाए तो डरता हूँ मैं  ।










                                                

Monday, May 28, 2012

इश्क़-ए -हकीकी ..




                                          उस चाँद के मानिंद रोशन कोई कहाँ 
                                          आसमां के दामन में यूँ चराग बहुत हैं 
                                          उन साँसों के तपिश की तासीर और है 
                                          कहने को जहाँ में यूँ तो आग बहुत है 
                                          एक घूँट के सुरूर में कुछ बात है साकी 
                                          तेरे मैकदे में यूँ तो शराब बहुत है 
                                          चन्द एक सबक का  ये खेल ज़िन्दगी 
                                          पढने को यूँ तो वैसे किताब बहुत हैं 
                                          मेरे जीने का सबब ये तसव्वुर  तेरे हैं 
                                          बुनने को यूँ तो नींद में ख्वाब बहुत हैं 
                                          हर एक मेरे सवाल का अंजाम अब तू है 
                                          पाने को मेरे पास यूँ जवाब बहुत हैं  । 

Sunday, May 13, 2012

अर्ज़ी..


                             
                                 शोहरतों के बाज़ार से मुझे मेरे हिस्से का नाम दे
                                 ताउम्र मेरे साथ हो मुझे एक अज़ीम इनाम दे
                                 ज़मींदोज मेरा अक्स हो मुझको न झूटी शान दे
                                 सबसे रहूँ महरूम पर मुझे ग़ैरत औ ईमान दे
                                 ख़ुशी की सुबह जो बक्श दे मुझे ग़म की भी वो शाम दे
                                 कुछ पलों में जीना सीख लूँ मुझे उम्र न तू तमाम दे
                                फिरता रहा हूँ दर-बदर मेरे क़दमों को अब आराम दे
                                एक राह मुझे दिखा के तू मेरे जुस्तजू को अंजाम दे
                                मेरे हसरतों का हिसाब रख मुझे सुकूँ औ इत्मीनान दे
                                मुझे अपनी गोद में सुला के तू मेरे रूह को अब क़याम दे
                
                               

                    

Friday, April 13, 2012

आईना..



                                 इन शह-मात के गफलत में तमाम उम्र गुज़ार देते हो,
                                 क्या हो जब यूँ ही खेल का दस्तूर बदल जाए ।
                                 
                                 ये दौलत-शोहरत क्यूँ ना दिल को सुकूँ देते हों ,
                                 क्या हो जो ये तन यूँ ही ख़ाक हो जाए ।

                                 जिस आब-ए-हयात से ये इबारत लिखी है तुमने ,
                                 क्या हो जो उस दरिया का रुख यक बदल जाए ।

                                 बदगुमानी है के ये बाग़ तो गुलज़ार है हर शै ,
                                 क्या हो जो यूँ खिज़ा का मिजाज़ फिर जाए ।

                                 कहते हो के एक रात ही काफी है नींद को ,
                                 क्या हो शब्-ए -हिज्र जो यूँ बेबस गुज़र जाए ।

                                 मद्धिम होते दिए को ज़रूरतमंद कौन यहाँ ,
                                 क्या हो जो सहर तक सभी चिराग बुझ जाए ।

                                 जिस चाँद पे इतना तुम्हे गुरुर है हबीब ,
                                 क्या हो जो आफ़ताब  यूँ बेज़ार हो जाए ।

                                 अपनों के वास्ते तुम्हे मोहलत नहीं अभी ,
                                 क्या हो जो उनके दीद को आँखें तरस जाए ।

                                 जिस लिबास के आग़ोश में सर-ए -महफ़िल में जाते हो ,
                                 क्या हो जो उस पोशाक में पेबन्द लग जाए ।

                                 हलक को खारे पानी की आदत इस हद तक न लगा ,
                                 क्या हो के अब्र बरसे  और प्यासे होंठ रह जाए ।

                                बेहिस है इस जहाँ से अपने ग़म में डूबकर ,
                                क्या हो जो गमखार अपनी पीर तुमसे सुना जाए ।   
                              

Wednesday, March 28, 2012

अरमाँ...



                              वो कहते हैं कोई उम्मीद न रख मुझसे
                              ज़िन्दगी हँस के गुज़र जायेगी,
                              कमबख्त आँखें रूठ जाती हैं
                              ग़र नम न हों।
                             ___________________________________________

                             ख्वाबों में भी तेरे अश्कों को संजोता हूँ
                             पै न जाने क्यूँ ,
                             ये ज़माना मुझपे उंगलियाँ उठाता है।
                             _____________________________________________

                            उस बददिमाग मय की ख़ता बस ये थी
                            कि सुरूर में भी तेरे दर्द को भी अपना समझा ,
                            वर्ना आज तो मंजर यूँ है
                            कि सीने में भी खंज़र भोंकते हैं,
                            जो दिमाग रखते हैं।
                            _______________________________________________

                            जुबां खोलूँ तो इन लफ़्ज़ों को
                            इन्साफ नहीं मिलता,
                            असर तो नज़रों के
                            आप बयाँ होने में है। 
                               

Monday, March 26, 2012

तुम..





                                        रातें कुछ ऐसी हों कि
                                        नींदें मेरी और
                                        ख़्वाब तुम्हारे हों,

                                       दिन कुछ ऐसे हों कि
                                       हर तरफ बस तेरे ही नज़ारें हों,

                                       हर एक पल तेरी सूरत हो
                                      आँखों में चाँद के मानिंद
                                      और आँचल में बिखरे हज़ारों सितारे हों,

                                      तेरे लफ़्ज़ों में हो तरन्नुम का सा एहसास
                                     जो तू हँस दे तो बिन बादल ही बरसी फुहारें हों |