आज भी वफ़ा को सीने में दबाए हम
मोहब्बत का पुरसुकून सितम माँगते हैं |
जिस्म जला रूह जली ख़्वाब जल गए
मुफ़लिसी में अब एक नज़र-ए-करम माँगते हैं |
लोग बेपरवाह थे सर-ए-बाज़ार में हबीब
चन्द रातों में तुम्हारे हिज्र की जलन माँगते हैं |
तुमने बेरुख़ी के सिवाय कुछ भी नहीं दिया
बेख़ुदी में डूबा फ़िर भी दीवानापन माँगते हैं |
तन्हाई में अब दिल के वो साज़ नहीं छिड़ते
नज़्मों ग़ज़लों से रोशन वही अन्जुमन माँगते हैं |
जहाँ के मखमली लिबासों में कोई जँचता ही नहीं अब
हिजाब से सजा तुम्हारा रुख़ पे पैरहन माँगते हैं |
ऐसा नहीं कि कोई चेहरा निगाहों से नहीं गुज़रा
हसीं शोख़ी से लबरेज़ वही बाँकपन माँगते हैं |
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