Monday, December 01, 2014

एक क़तरा : ज़िन्दगी

Picture Courtesy : Google  



                      
ज़िन्दगी
शबनम के शफ़्फ़ाफ़ क़तरे सी
किसी सुबह एक ज़र्द पत्ते पर
यूँ सर रखे कुछ नासाज़ मिली
शायद अर्श से फ़र्श तक के
सफ़र और रास्तों से ख़ाइफ़ थी
जिस्म तप रहा था
आँखें बेसबब बन्द हुई जाती थीं
सब पिछले वाक़यात सिलसिलेवार
किसी किताब के पन्नों के मानिंद
ज़हन पर दस्तक देने लगे
मानो जैसे हश्र का दिन हो
कुछ कहे पर मलाल
कुछ अनकहे पर सवाल
हालातों से हलकान कभी
ख़ुशियों पर इत्मिनान भी कभी
गाहे-बगाहे पाकीज़गी की आज़माईश भी
ख़ुद को खोने-पाने की गुँजाइश भी थी
तभी एक सफ़हे पे निगाह थमी
वो मुड़ा-तुड़ा सा ज़रूर था
हर्फ़ भी जैसे बेतरतीब बिखरे पड़े
किन्हीं ज़हनसीब हाथों के लम्स को
उम्र भर के तरसे हुए थे
शायद कोई क़रीब आते-आते
फ़ासलों में गुम हुआ था
तभी महक अब तलक उन्हीं
सफ़्हों में क़ैद है
ख़ैर,ये कारवाँ कब रुके हैं
जो तब रुकते
एक अन्जाम तो लाज़मी था
वही जो कभी फ़िज़ाओं की शोख़ी से
लरजते पत्तों पर खिलखिलाती बूँदें
वही जो आज ज़मीं पे ज़र्द पड़े
पत्ते पे बेज़ुबान पर शायद सुक़ूँमंद बूँदें
यही तो तक़्मील उस बूँद की थी
फ़लक के अब्र से ज़मीं की तहों तक

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