Friday, April 13, 2012

आईना..



                                 इन शह-मात के गफलत में तमाम उम्र गुज़ार देते हो,
                                 क्या हो जब यूँ ही खेल का दस्तूर बदल जाए ।
                                 
                                 ये दौलत-शोहरत क्यूँ ना दिल को सुकूँ देते हों ,
                                 क्या हो जो ये तन यूँ ही ख़ाक हो जाए ।

                                 जिस आब-ए-हयात से ये इबारत लिखी है तुमने ,
                                 क्या हो जो उस दरिया का रुख यक बदल जाए ।

                                 बदगुमानी है के ये बाग़ तो गुलज़ार है हर शै ,
                                 क्या हो जो यूँ खिज़ा का मिजाज़ फिर जाए ।

                                 कहते हो के एक रात ही काफी है नींद को ,
                                 क्या हो शब्-ए -हिज्र जो यूँ बेबस गुज़र जाए ।

                                 मद्धिम होते दिए को ज़रूरतमंद कौन यहाँ ,
                                 क्या हो जो सहर तक सभी चिराग बुझ जाए ।

                                 जिस चाँद पे इतना तुम्हे गुरुर है हबीब ,
                                 क्या हो जो आफ़ताब  यूँ बेज़ार हो जाए ।

                                 अपनों के वास्ते तुम्हे मोहलत नहीं अभी ,
                                 क्या हो जो उनके दीद को आँखें तरस जाए ।

                                 जिस लिबास के आग़ोश में सर-ए -महफ़िल में जाते हो ,
                                 क्या हो जो उस पोशाक में पेबन्द लग जाए ।

                                 हलक को खारे पानी की आदत इस हद तक न लगा ,
                                 क्या हो के अब्र बरसे  और प्यासे होंठ रह जाए ।

                                बेहिस है इस जहाँ से अपने ग़म में डूबकर ,
                                क्या हो जो गमखार अपनी पीर तुमसे सुना जाए ।   
                              

6 comments:

  1. क्या बात है?? कोई शिकायत या शिकवा है किसी से........
    बड़ी बेरुख़ी है ,
    पर अल्फाज़ो में दर्द झलक रहा है ,
    शायद इन्सानी फितरत से शिकायत है.......|
    जो भी हो पर नज़्म लाजवाब है , शुक्रिया बस ऐसे ही ज़ज्बातों को अल्फाजों में पिरोते रहो...........................
    एक बात और 'आईने" की तसवीर बड़ी रूहानी है ,इसने दिल जीत लिया, कुछ घडी मै इसे बस निहारता रह गया|

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    1. इस नज़्म के लिखने के पीछे सिर्फ एक ही मकसद था कि हम इंसानों को कभी उस आईने में भी खुद को देखना चाहिए जो इश्वर हमें दिखाना चाहते हैं |
      क्यूँकि बिना उसके एहसास के सब बेमानी हो जाता है एक वक़्त पर |
      और रही बात आईने कि शक्ल कि तो वो रूहानी इसलिए है क्यूँकि मेरी कलम का रुख ही कुछ रूहानी था इसे लिखते हुए, अब इसमें कामयाब कितना हुआ ये पढने वाले अच्छी तरह से बता सकते हैं |
      आखिर में तह-ए-दिल से शुक्रिया इस हौसला अफज़ाई के लिए |

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    2. मेरी उर्दू अच्छी नहीं....बहुत कम अल्फाज़ है मेरे पास;
      इन सिमटे अल्फाज़ो के साथ कुछ जवाब..............

      खेल का दस्तूर बदल जाता
      गर गफ़लत ख़तम हो जाती ,
      रह के इस गफ़लत में ,
      मिली न मोहलत कुछ सोचने की..
      .........................................
      ये दौलत सोहरत तो ,
      बस दिखावे के है
      आखिर में ये तन
      तो सुपुर्दे खाक होना है...
      पर आ जाये बात जेहन में
      तो फिर क्यों रेहन रहे रूह
      रूह आजाद हो कर के
      क्यों न पहुंचे मंजिल तक |
      ..................................
      गर मिटा दें हम अपनी हस्ती
      तो फिर गुलज़ार हो जाये
      उस खुदा की बस्ती....|
      सदियों से बस यही तमाशा है
      हम अपनी खुदी में.
      कुछ इस कदर डूबे
      की खुदा की खुदाई
      को ही भुला बैठे.......|
      ..................................
      आओ मिटा दे खुद को
      छोड़ दे गुरुर की मगरुरी
      चल पड़े मंज़िल की ओर
      कर दें गुलज़ार उस जहाँ को...........|

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  2. Mama aur bhaiya mujhe lagta hai ki aap logo k saath mai jaldi hi Sudh hindi seekh jaaunga.|

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  3. Prateek ji..kal tak aap bas dost the.. aaj se hum aapke murid ho gaye.. amal ho miyan

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