कतार में खड़ी शामें
उफ़क़ के परे कहीं पिघलती हुई
अपने मायनों की तलाश में
डूबती सी हैं ,
जब हाशिए पर खड़ा मैं
हर्फों पर पेबंद लगा
नज़्मों के लिबास पर
ज़रा इतरा सा जाता हूँ
पर आज जब दरीचे खोले
तो आँखें भिंची रह गयी
रुख फ़लक के जानिब था
और वो पेबंद बर्फ़ की तरह साफ़
और सितारे की तरह रोशन दिखे
नज़्म को कई बार टटोला
और कलम के तर्जुमें में तोला भी
तब एक टीस उठी
कि कोई आह ना जुम्बिश
मेरी नज्में सिसकती क्यों हैं ।
अवाक कर देने वाले लफ्जों को संजोना आपसे बेहतर मेरी जानकारी में कोई नहीं जानता. बहुत खूब नज़्म है प्रतीक जी
ReplyDeleteशुक्रिया तह-ए-दिल से, ऐसे अल्फ़ाज़ मुझे और लिखने का जज़्बा देते हैं ।
Deleteहमारे लफ्ज ,हमारे जज्बातों को जाहिर करते है…
ReplyDeleteगर आपकी नज्में दिल के पर्तो की गहराई में उतर कर ,हर्फो के रस्ते से कागजों पे उतर जाती है,तो ये इस शायर की सबसे बड़ी खूबी है ।
...................अभी समय कम है ,इस नज़्म का अर्थ तो जान गया पर इसमें अन्योक्ति भावों को समझने के लिए तसल्ली से बैठता हूँ फिर कोई कमेंट दूँगा। बाकि नज्म लाज़वाब है ,आपकी लेखनी तो है ही कमाल की,ये अंतर्मन की गहराईयों में उतर कर कुछ सोचने के लिए विवश करती है ।