Sunday, September 01, 2013

एक ग़ज़ल



आज भी वफ़ा को सीने में दबाए हम 
मोहब्बत का पुरसुकून सितम माँगते हैं | 

जिस्म जला रूह जली ख़्वाब जल गए 
मुफ़लिसी में अब एक नज़र-ए-करम माँगते हैं | 

लोग बेपरवाह थे सर-ए-बाज़ार में हबीब 
चन्द रातों में तुम्हारे हिज्र की जलन माँगते हैं | 

तुमने बेरुख़ी के सिवाय कुछ भी नहीं दिया 
बेख़ुदी में डूबा फ़िर भी दीवानापन माँगते हैं | 

तन्हाई में अब दिल के वो साज़ नहीं छिड़ते 
नज़्मों ग़ज़लों से रोशन वही अन्जुमन माँगते हैं | 

जहाँ के मखमली लिबासों में कोई जँचता ही नहीं अब 
हिजाब से सजा तुम्हारा रुख़ पे  पैरहन माँगते हैं | 

ऐसा नहीं कि कोई चेहरा निगाहों से नहीं गुज़रा 
हसीं शोख़ी से लबरेज़ वही बाँकपन माँगते हैं |