आज ख़यालों के पतवार से
उस सफ़ीने को जब
समन्दर के आग़ोश में उतारा
तो दूर कहीं ढलती शाम के
अक्स में ख़ुद का ही
एक ज़र्द बेबस चेहरा
थमती नब्ज़ों पर
कहीं टकटकी लगाए
गुमसुम सा बैठा था ,
कब तक कुछ बेजान थपकियों भर से
उसकी रंगत सहेजता ,
क़तरा-क़तरा साँस-साँस
एक नूर मद्धिम सी होती जान पड़ती है
अब जब ज़िन्दगी मुझ पर
फ़िकरे कसती
मेरा मखौल उड़ाती है
तब एक मुकम्मल एहसास होता है
कैसे एक संजीदा ख़याल
दम तोड़ता है
और मैं इस 'मौत' का
तमाशबीं खुद होता हूँ ।
main apni abhivyakti, kabir ke is rahasyavad se de raha hoo.........
ReplyDeleteपंक्षी उड़ानी गगन विच ,पिंड रहा परदेश ।
पानी पिया चंचु बिन,भूल गया यह देश ।। ......(कबीर दास )
khoob likha... trying using pure urdu..(makhual)... your ideas are damn creative..")
ReplyDeleteThank you so much :)
DeleteYour words mean a lot !