सृजन.. |
इन दिनों ह्रदय में
एक उथल-पुथल सी मची है,
कुछ परछाइयां आँखों से
ओझल होती दिखीं हैं,
सोया था लेकर
एक धवल सा चित्रपट
नैनों में,
उठा,देखा तो उसमें
अनेकों आकृतियाँ छपीं हैं,
वांछित-अवांछित सब
देखने का स्वप्न था,
पर देखा तो आँखें
सदियों से भिचीं है,
औरों से हुआ
जाते समय का भान,
पर स्वयं सोचा
तो सारी घड़ियाँ ही रुकी हैं,
उत्कट इच्छा थी
किसी गहन आत्मानुभूति की,
यहाँ तो उनमे ही अनेकों
सीमा-रेखाएं खिचीं हैं,
अँधेरे के अंक में
दुबके पंथ की ये अनंतता,
फिर भी जाने क्यूँ
आशातुर मेरी ये आँखें
आदि से बिछीं हैं|
गहन चिंतन के क्षणों में , कुछ दार्शनिकता समेटे हुए ,अन्योक्ति भाव से कुछ कहने का प्रयत्न करती ये पंक्तियाँ .....
ReplyDeleteआपकी आत्म अनुभूति को व्यक्त करने का प्रयास हैं|
संभवतः भाव कुछ अन्योक्ति में ही रखने का प्रयास किया था मैंने और पाठकों को पूरी स्वतंत्रता देने का भी प्रयास किया है कि जो भी उन्हें यथेष्ट प्रतीत हो व्याख्यायित करें |
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