नीले आसमान के
एक छोटे से दरीचे से
चाँदनी की अलसाई किरणों का
पसरता साम्राज्य,
जो निशब्दता में भी
छेड़ती एक सुमधुर तान ,
तभी इस तन्द्रा से
जगाया किसी सुरमयी आवाज़ ने
पर आँख खुली तो
सम्मुख वही मीलों पसरा सन्नाटा,
एक बार फिर
स्वयं से छल ,
फिर से वही मरीचिका
जिसके लिए उठता
अंतर में द्वंद्व ,
पर कब तक ?
बुझती ही सही
पर एक आस है
कि उसी मरीचिका से
फूटेंगे सोते ,
जो सिक्त करेंगे
मेरी ऊसर धरा को ,
और
प्रस्फुटित होगा जिसमें
नव अंकुर मेरी आशाओं का
एक नए सूरज के साथ
एक नयी 'सुनहरी सुबह' में ।
beautiful poem
ReplyDeletethanks a lot seema for your kind words..:)
Deleteबारिश तो रेगिस्तान के
Deleteमरुस्थल में भी हो जाती है.....
समुद्र में भी ,
बड़वानल आ ही जाता है ...
रही बात आशाओं के नव अंकुर की, तो वो अंकुर तो है ही ..
बस उगते सूरज के साथ,नए सुनहरे सुबह में पुष्पित और पल्लवित होना है.......|
Lovely made by day
ReplyDeleteaaye haye..bas sab badiyan
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