इन शह-मात के गफलत में तमाम उम्र गुज़ार देते हो,
क्या हो जब यूँ ही खेल का दस्तूर बदल जाए ।
ये दौलत-शोहरत क्यूँ ना दिल को सुकूँ देते हों ,
क्या हो जो ये तन यूँ ही ख़ाक हो जाए ।
जिस आब-ए-हयात से ये इबारत लिखी है तुमने ,
क्या हो जो उस दरिया का रुख यक बदल जाए ।
बदगुमानी है के ये बाग़ तो गुलज़ार है हर शै ,
क्या हो जो यूँ खिज़ा का मिजाज़ फिर जाए ।
कहते हो के एक रात ही काफी है नींद को ,
क्या हो शब्-ए -हिज्र जो यूँ बेबस गुज़र जाए ।
मद्धिम होते दिए को ज़रूरतमंद कौन यहाँ ,
क्या हो जो सहर तक सभी चिराग बुझ जाए ।
जिस चाँद पे इतना तुम्हे गुरुर है हबीब ,
क्या हो जो आफ़ताब यूँ बेज़ार हो जाए ।
अपनों के वास्ते तुम्हे मोहलत नहीं अभी ,
क्या हो जो उनके दीद को आँखें तरस जाए ।
जिस लिबास के आग़ोश में सर-ए -महफ़िल में जाते हो ,
क्या हो जो उस पोशाक में पेबन्द लग जाए ।
हलक को खारे पानी की आदत इस हद तक न लगा ,
क्या हो के अब्र बरसे और प्यासे होंठ रह जाए ।
बेहिस है इस जहाँ से अपने ग़म में डूबकर ,
क्या हो जो गमखार अपनी पीर तुमसे सुना जाए ।