कुछ भावों को मूर्त रूप दिया तो
एक आकृति सी उभरी
बहुत सोचा तो अन्ततः
नाम दिया उसे 'रिश्ता' ,
एक-दूसरे से अनभिज्ञ
क्षण भर पहले मीलों की दूरियाँ ,
सहसा कुछ खटका,
ह्रदय के द्वार पर
देखा तो उन्हीं भावों की दस्तक थी,
मष्तिष्क में उठा ज्वार-भाटा
अन्तर में एक विचित्र विश्वास भरा सन्नाटा,
कि यही तो है वो 'रिश्ता' ,
कभी किसी मोड़ पर शिकवे
तो कभी दुहाई इसमें डूबने-उतराने की,
तिरते हैं आजीवन
जिस निस्सीम आकाश पर
वही तो है ये पवित्र 'रिश्ता' ,
वाचालता से अपरिभाषित
चुप्पी में ही अपार निश्चलता,
मनोवेगों पर नियंत्रण नहीं
उन सभी सीमाओं का
अतिक्रमण है ये 'रिश्ता',
क्यों ये अल्हड़ मन
इसमें ही विलीन होने को है ,
क्यों ये सारा जीवन
इसी का निमित्त लगे,
एक उँगली का सहारा
और डगर अन्तहीन ,
पथप्रदर्शक बनकर ढाढ़स बँधाता
पग-पग पर एक अदृश्य संगी,
सब ने कहा निरा भ्रम,
पर यही तो है मेरा साये से
वो विचित्र सा 'रिश्ता'...
बहुत भावपूर्ण तथा मर्मस्पर्शी पंक्तिया है....
ReplyDeleteजीवन में' रिश्ते' बहुत मूल्यवान होते है ,और कुछ तो अमूल्य ...
रिश्तो के होने से आधिक उनका निर्वहन है ,
ये कुछ कठिन भी नहीं है..... यदि रिश्ते हमारे ह्रदय के भावो से जुड़े हो तो स्वतः ही हम इनको और इन में जीने लगते है
फिर इनके बिना रह पाना संभव नहीं होता..|
प्रतिउत्तर में लिखना तो कुछ और चाह रहा हूँ ,पर लेखनी सुसुप्त सी हो गयी है|
इसके जागने की प्रतीक्षा में हूँ....फिर कुछ पद्य लिख सकूँगा|
Beautiful again. And the last 2 lines totally altered the whole perspective I had taken by them. Keep up the good work :)
ReplyDeleteI'm really wondering how much is too much in case of responding to ur feedbacks..just falling short of words..:)
Deleteyet again thanks much!!