हर रोज़ चादरों में कहीं खोकर
नींद के दरवाजों पर दस्तक देता हूँ
तो एक चिर-परिचित ध्वनि गूँजती है
आश्रय चाहिए ...????
मेरी चुप्पी में ही मेरी स्वीकारोक्ति होती है
ख़ैर, कुछ तो चिर-स्थायी है,
फिर क्या...
उसी आश्रय के आलिंगनबद्ध होकर
एक नया रास्ता ढूँढ़ता हूँ
बादलों तक का,
फिर चलता हूँ उसी आस में
फिर वापस होता हूँ
उसी बोझिल मन से,
पर अब लोग कहते हैं
ये कदम शिथिल हो चले हैं
अब इनमें वो धार नहीं
मीलों निर्बाध चलने का,
मैं भी शायद नतमस्तक हूँ
इस अक्षमता के सम्मुख,
सच तो है
अब ये पथ जो मेरे अपने थे
निर्जन हो चले हैं ,
कहते हैं , अब लोग
बादलों के पार जाने लगे हैं
किन्हीं नए रास्तों से
कृत्रिम पाँवों से ...... ।
जीवन इस से भी आधिक आगे और है इसे जानने में पूरी उम्र गुजर जाती है |रही बात कविता की तो इस को पढ़ के ऐसा लगा की पहले भी पढ़ चुका हूँ , इन्ही भावो को व्यक्त करती इस से बेहतर कृतित्व आपकी लेखनी से निर्गत हुयी है ,....'ये मेरी धूमिल होती रेखाएं' फिर से देखिये और उसपे मेरा कमेन्ट भी पढ़िए .....|
ReplyDeleteकविता का प्रतिउत्तर .....
आश्रय की ख़ोज करते है निराश्रित
वो नहीं,
जो दुसरो का आशियाना बनने की,
कूबत रखते है...|
और कदमो का रुकना
शिथिलता नहीं ....
क्षणिक विश्राम है ...|
छदम असफलता ,
व्यक्ति की अक्षमता नहीं ,
प्रयास की विफलता है...|
नतमस्तक हो जाना
इंसानी फितरत नहीं...|
मस्तक उठा के चलना,
कुछ कर जाने की लालसा
ही जीवन का फलसफा है.....|
'पों' जी की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही है.......................यथा
व्यक्ति को चाहिए
परिस्थितियों से लड़े
उनसे जूझे ....|
एक स्वपन टूटे तो
दूजा फिर बुने...|
और एक अन्य कविता के छः शब्द....
हार नहीं मानूंगा
रार नयी ठानूंगा ...|