कुछ भावों को मूर्त रूप दिया तो
एक आकृति सी उभरी
बहुत सोचा तो अन्ततः
नाम दिया उसे 'रिश्ता' ,
एक-दूसरे से अनभिज्ञ
क्षण भर पहले मीलों की दूरियाँ ,
सहसा कुछ खटका,
ह्रदय के द्वार पर
देखा तो उन्हीं भावों की दस्तक थी,
मष्तिष्क में उठा ज्वार-भाटा
अन्तर में एक विचित्र विश्वास भरा सन्नाटा,
कि यही तो है वो 'रिश्ता' ,
कभी किसी मोड़ पर शिकवे
तो कभी दुहाई इसमें डूबने-उतराने की,
तिरते हैं आजीवन
जिस निस्सीम आकाश पर
वही तो है ये पवित्र 'रिश्ता' ,
वाचालता से अपरिभाषित
चुप्पी में ही अपार निश्चलता,
मनोवेगों पर नियंत्रण नहीं
उन सभी सीमाओं का
अतिक्रमण है ये 'रिश्ता',
क्यों ये अल्हड़ मन
इसमें ही विलीन होने को है ,
क्यों ये सारा जीवन
इसी का निमित्त लगे,
एक उँगली का सहारा
और डगर अन्तहीन ,
पथप्रदर्शक बनकर ढाढ़स बँधाता
पग-पग पर एक अदृश्य संगी,
सब ने कहा निरा भ्रम,
पर यही तो है मेरा साये से
वो विचित्र सा 'रिश्ता'...