वो कहते हैं कोई उम्मीद न रख मुझसे
ज़िन्दगी हँस के गुज़र जायेगी,
कमबख्त आँखें रूठ जाती हैं
ग़र नम न हों।
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ख्वाबों में भी तेरे अश्कों को संजोता हूँ
पै न जाने क्यूँ ,
ये ज़माना मुझपे उंगलियाँ उठाता है।
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उस बददिमाग मय की ख़ता बस ये थी
कि सुरूर में भी तेरे दर्द को भी अपना समझा ,
वर्ना आज तो मंजर यूँ है
कि सीने में भी खंज़र भोंकते हैं,
जो दिमाग रखते हैं।
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जुबां खोलूँ तो इन लफ़्ज़ों को
इन्साफ नहीं मिलता,
असर तो नज़रों के
आप बयाँ होने में है।