कतार में खड़ी शामें
उफ़क़ के परे कहीं पिघलती हुई
अपने मायनों की तलाश में
डूबती सी हैं ,
जब हाशिए पर खड़ा मैं
हर्फों पर पेबंद लगा
नज़्मों के लिबास पर
ज़रा इतरा सा जाता हूँ
पर आज जब दरीचे खोले
तो आँखें भिंची रह गयी
रुख फ़लक के जानिब था
और वो पेबंद बर्फ़ की तरह साफ़
और सितारे की तरह रोशन दिखे
नज़्म को कई बार टटोला
और कलम के तर्जुमें में तोला भी
तब एक टीस उठी
कि कोई आह ना जुम्बिश
मेरी नज्में सिसकती क्यों हैं ।