मकाँ का हश्र देखकर कैफ़ियत समझ लिया
वो कहते हैं दीवार-ओ-दर तो यूँ बेज़ुबान है
तुमपर हया की बन्दिश, मैं फ़ितरत का मारा हूँ
कुछ ऐसी अपने इश्क़ की ये दास्तान है
कभी ज़िल्लत कभी शोहरत कभी नेकी कभी बदी
हर एक शख्स यहाँ खुद में कहीं परेशान है
एक रिहायशी बस्ती थी कभी अपनों के शहर में
किसी रक़ीब का भी अब जहाँ न नाम-ओ-निशान है
इन मख़मली असाईशों की तुमको बेकली मुबारक हो
हमें सुकूँ की चादरों तले ही इत्मिनान है
निगाह-ओ-दिल से गुजरेंगे वही काग़ज़ पर बिखरेंगे
मैं शायर हूँ मेरी तहरीर का एक ईमान है ।
वो कहते हैं दीवार-ओ-दर तो यूँ बेज़ुबान है
तुमपर हया की बन्दिश, मैं फ़ितरत का मारा हूँ
कुछ ऐसी अपने इश्क़ की ये दास्तान है
कभी ज़िल्लत कभी शोहरत कभी नेकी कभी बदी
हर एक शख्स यहाँ खुद में कहीं परेशान है
एक रिहायशी बस्ती थी कभी अपनों के शहर में
किसी रक़ीब का भी अब जहाँ न नाम-ओ-निशान है
इन मख़मली असाईशों की तुमको बेकली मुबारक हो
हमें सुकूँ की चादरों तले ही इत्मिनान है
निगाह-ओ-दिल से गुजरेंगे वही काग़ज़ पर बिखरेंगे
मैं शायर हूँ मेरी तहरीर का एक ईमान है ।