गुफ़्तगू में अब मैं जिरहों से परहेज़ करता हूँ
ख़त्म होने के बाद कम्बख्त बहुत याद आते हैं
भरे महफ़िल में उनकी रुस्वाई नागवार जाती है
लोग फ़ब्तियां कसते तन्ज़ बरसा के जाते हैं
क़ुर्बतें सिसकती हैं जब रिश्ते तल्ख़ होते हैं
उल्फ़तों में फ़ासलों के ज़िक्र आ ही जाते हैं
माँ जैसा कोई जहाँ में ढूँढना फ़िज़ूल है
ग़मगीनियत में तोलो जो और रिश्तों में आते हैं
काफ़िये को ढील दी तो यूँ ग़ज़लें मचल गईं
तहरीरों से शाद दिल को वो फ़िर दुखा के जाते हैं
तमाम बस्तियों के तंग कूचों से यूँ गुरेज़ नहीं है
तंगदिली से ज़हन-ओ-दिल पर वो सितम ढा ही जाते हैं
ख़ानाबदोश दिल की वो आवारा उलझनें
सिलसिलेवार उनके ख्वाब सब सुलझा के जाते हैं
तुम मुझसे छुपाते हो अपने दिल के ज़ख़्म
कभी ग़ज़लों कभी नग़मों से वो नज़र आ ही जाते हैं
ऐ मेरे सोज़ तू कोई और आशियाँ तलाश ले
वो अब दिल में ही रहेंगे जो ख्वाबों में आकर जाते हैं ।