Monday, December 31, 2012
एक वो रात ऐसी थी..
रुख्सार पर भी उसके मुस्कुराहटें थीं खेलती
हुजूम-ए-अश्क़ से तर दामन था एक वो रात ऐसी थी ।
चिराग-ए-मुर्दा था वहाँ इन्सानियत का अक्स
रोशनी भी थी शर्मसार एक वो रात ऐसी थी ।
एक बेजान होती चीख़ और वो आह-ए-आतशी
आबरू थी बेहिजाब एक वो रात ऐसी थी ।
बेपरवाह था शहर औ नुक्कड़ों पे कानून के वो बुत
बने सब बेहया तमाशबीं एक वो रात ऐसी थी ।
चन्द एक हंगामों से सही हम ज़मीर के हमज़बाँ हुए
धधकती अब तलक है आग एक वो रात ऐसी थी ।
बाद-ए-मर्ग के भी पाँव कफ़न में है हिल रहा
फ़रिश्ते भी थे कश्मकश में एक वो रात ऐसी थी।
करो एक पल तो एहसास वो ख़लिश-ए-ख़ार ऐ अहले वतन
हमसे ही कुछ रुख्सत हुआ एक वो रात ऐसी थी ।
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