सदियों से एक प्रश्नवाचक दृष्टि
उस असीमित नीले अम्बर पर ,
सूरज के ओज से प्रकाशित
द्युति की गर्जना से भी
स्थिर-श्रांत ,
कहने को है स्पष्ट पटल
पर फिर भी मन को
कचोटता है कुछ ,
कि इन बादलों के आगे क्या ?
कभी है कपोल-कल्पना मात्र
क्षण भर में अटल सत्य का आभाष ,
कभी सोचूँ तो वहाँ
भावों का सागर विद्यमान ,
क्षण भर में हो शून्यता का भान,
कभी सोचूँ तो वहाँ दैवीय-शक्तियों का निवास
क्षण भर में लगे निरा मनुष्यों का वास ,
परन्तु वह काल्पनिक जगत भले हो
मिथ्या -मात्र ,
फिर भी उसी काल्पनिकता में
डूबने-उतराने की चाह है,
इस 'तथाकथित सत्यता' से
मन आहत है ,
उस मिथ्या- प्रवाह में सतत
बहने की चाह है ।