Tuesday, December 09, 2014

दीदी !


स्कूल जाते हुए वही
कश्मकश होती कि
ये यूनीफॉर्म क्यों?
'दीदी' झट से ये यक्ष-प्रश्न
काफ़ूर कर देती
इस्तरी करके करीने से रखी
शर्ट और पैंट ले आती
बस फ़िर क्या था
दो पल में नन्हा सा जेन्टलमैन कर देती
गालों को एक हाथ से पकड़
दूसरे से बालों पर कंघा फिराती
मैं गुस्से में तिलमिलाता
दीदी! मैं कोई बच्चा नहीं अब
पर कहाँ चलती मेरी
स्वीकारोक्ति में बाल सँवर जाते
अच्छा चलो पैर आगे करो
मैं मुँह बनाकर जूते की डोरी बँधवाता
फ़िर शुरू होता
खाना खाने का ताण्डव
दीदी हर निवाले के साथ
हिदायतों की घुट्टी देती
टिफ़िन चुक जानी चाहिए
वापस आकर पूरी जाँच टिफ़िन की होती
बड़ा हुआ स्कूल छूटा
और ये नित्य का क्रम भी टूटा
पहले कॉलेज और फ़िर
अब नौकरी की जद्दोज़हद
अब बालों में कंघा फ़िरता तो है
पर वो मासूमियत नहीं आती
जो दीदी लाती थी
जूतों की डोरियाँ तो बंध जाती हैं
पैर संभल भी जाते हैं
पर वो स्नेहिल झरोखे खुले ही रहते हैं
इस आस में की दीदी सब हिस्से
समेट के बाँध देगी
जो बिखरे से रहते हैं
वक़्ती तक़ाज़ों ने निक्कर से
सूट तक ला खड़ा किया
पर अब भी मैं उसका 'बाबू' हूँ
जो बस्ता लादे कल स्कूल के सबक सीखता था
काँधों पे बोझ आज भी है
पर आज शायद ज़िन्दगी पढ़ता है । 


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