Sunday, December 14, 2014

सर्द एहसास!




दीवार पर घड़ी की टिक-टिक
अब आग़ोश में ले लेती है
छत पर टंगे पंखे के डैनों की आवाज़ को
ख़ामोशी जैसे ऐसी सौगात हो
जिसे रात नज़्र करके गई हो
खिड़कियों पर परदे हिलते हैं
तो जिस्म सिहर जाता है
बाहर सर्द हवाओं ने दस्तक दी है
मौसम ने फ़िर से करवट ली है शायद,
सारी तपिश जैसे कलम ने ज़ब्त कर लिया हो
स्याही से सफ़्हे सुलगते से हैं
असर तल्ख़ सा होने लग जाता है सुखन का
लोग मानिंद धूप के आते हैं
हरारत भी साथ लाते, पर
एक हिस्सा मेरा फ़िर भी गलन में
तिल-तिल कर दम तोड़ता
काश! तुम कुहरे के चादरों तले सिमटे
मेरे बेहाल,बेज़ार हर्फ़ पढ़ते
काश! तुम उस हिस्से को
मुकम्मल सी एक ज़िन्दगी देते

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