Sunday, January 19, 2014

एक ग़ज़ल


गुफ़्तगू में अब मैं जिरहों से परहेज़ करता हूँ 
ख़त्म होने के बाद कम्बख्त बहुत याद आते हैं 

भरे महफ़िल में उनकी रुस्वाई नागवार जाती है 
लोग फ़ब्तियां कसते तन्ज़ बरसा के जाते हैं 

क़ुर्बतें सिसकती हैं जब रिश्ते तल्ख़ होते हैं 
उल्फ़तों में फ़ासलों के ज़िक्र आ ही जाते हैं 

माँ जैसा कोई जहाँ में ढूँढना फ़िज़ूल है 
ग़मगीनियत में तोलो जो और रिश्तों में आते हैं 

काफ़िये को ढील दी तो यूँ ग़ज़लें मचल गईं 
तहरीरों से शाद दिल को वो फ़िर  दुखा के जाते हैं 

तमाम बस्तियों के तंग कूचों से यूँ गुरेज़ नहीं है 
तंगदिली से ज़हन-ओ-दिल पर वो सितम ढा ही जाते हैं 

ख़ानाबदोश दिल की वो आवारा उलझनें 
सिलसिलेवार उनके ख्वाब सब सुलझा के जाते हैं 

तुम मुझसे छुपाते हो अपने दिल के ज़ख़्म 
कभी ग़ज़लों कभी नग़मों से वो नज़र आ ही जाते हैं 

ऐ मेरे सोज़ तू कोई और आशियाँ तलाश ले 
वो अब दिल में ही रहेंगे जो ख्वाबों में आकर जाते हैं ।