Sunday, December 07, 2014

जीवन : एक दृष्टिकोण


मलिन व मृतप्राय होते वस्त्र सही
पर जीवन और जिजीविषा का अद्भुत स्वरुप
दिन-प्रतिदिन सूरज से संघर्ष होता
तीखे निर्मम प्रकाश से होड़ रहता
अंग-प्रत्यंग दुखाकर तब कहीं
वरदान स्वरुप दो निवाले आते
यहाँ मरू में मरीचिका की आस नहीं
उपवन में जीवन का सुहृद प्रयास है
परिस्थितियाँ मौन कराती परन्तु
हर साँझ अलाव पर बैठकर
उसके ठहाके और गुंजित होते
पौरुष से अर्जित दो सूखी रोटियों
और कुएँ के एक लोटे पानी में बड़ा प्रताप था
क्षुधा तृप्त हो जाती
नभ के असीम चादरों में बस
आनंद सोता होनी-अनहोनी से निर्लिप्त
रजनी एकटक देखती हतप्रभ सी
कि ये कैसा सन्तोष है
कैसी तृप्ति है
और वत्सल हाथों से सर पर हाथ फेरती
वह झट निद्रा को विजित कर लेता
चिंता की रेखाएँ होतीं पर
वह अद्भुत तृप्ति उन्हें जाने कहाँ मिटा देती
अहा! क्या जीवन है उसका
और हम ?
अर्थ के फाँस में बँधने की युक्ति
और प्राप्ति हेतु जीवन भी विस्मृत करना
क्या तुच्छ उद्देश्य हमारे थे
लालसा उसको भी है ऐश्वर्य की
पर नियति ने परिभाषा और दी है
दुःख-कंटकों के घाव असंख्य होते
आँसुओं में सिक्त अनेकों आशाएँ भी होतीं
पर क्षण-क्षण का उल्लास विह्वल करता
तम सा प्रशस्त अन्धकार क्यों न घर में पर
ह्रदय का ओज अप्रतिम रहता
विपन्नता और अभाव लघुता से कम्पित करते
'जिजीविषा' से अपने वह पर सदा अडिग रहता
यही गुरुता है जीवन की 
यही सारांश है जीवन का । 





2 comments:

  1. कभी 'निराला ' को पढ़ा था , उनकी कविताओं में झाँका था , चाहे वह ' तोड़ती पत्थर हो ' या फिर 'मुटठी भर दाने को भूख मिटाने को ' यही भाव पूरी शिद्दत से मुखरित होता है.…… आज इस युग में भी ,जीवन का यह संघर्ष एक सच्चाई है । हम -आप जैसे मिट्टी से जुड़े लोग इस सच से सीधे तौर पर रूबरू होते है , चाहे वो फकीरे हो या जगराम संघर्ष तो बस वही 'मुटठी भर दाने को भूख मिटाने को '.... आपने भावुक कर दिय.... फिर भी अलाव के.… … ठहाके , यही जिजीवषा है , सचमुच ,बहुत बड़ा जीवन-दर्शन है ,इन पंक्तियों में। इतने सुख -सम्बृद्धि , विलासिता में रहकर भी मुस्कान को तरसते होंठो को सचमुच शर्मशार हो जाना चाहिए। ....

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