Sunday, December 14, 2014

सर्द एहसास!




दीवार पर घड़ी की टिक-टिक
अब आग़ोश में ले लेती है
छत पर टंगे पंखे के डैनों की आवाज़ को
ख़ामोशी जैसे ऐसी सौगात हो
जिसे रात नज़्र करके गई हो
खिड़कियों पर परदे हिलते हैं
तो जिस्म सिहर जाता है
बाहर सर्द हवाओं ने दस्तक दी है
मौसम ने फ़िर से करवट ली है शायद,
सारी तपिश जैसे कलम ने ज़ब्त कर लिया हो
स्याही से सफ़्हे सुलगते से हैं
असर तल्ख़ सा होने लग जाता है सुखन का
लोग मानिंद धूप के आते हैं
हरारत भी साथ लाते, पर
एक हिस्सा मेरा फ़िर भी गलन में
तिल-तिल कर दम तोड़ता
काश! तुम कुहरे के चादरों तले सिमटे
मेरे बेहाल,बेज़ार हर्फ़ पढ़ते
काश! तुम उस हिस्से को
मुकम्मल सी एक ज़िन्दगी देते

Tuesday, December 09, 2014

दीदी !


स्कूल जाते हुए वही
कश्मकश होती कि
ये यूनीफॉर्म क्यों?
'दीदी' झट से ये यक्ष-प्रश्न
काफ़ूर कर देती
इस्तरी करके करीने से रखी
शर्ट और पैंट ले आती
बस फ़िर क्या था
दो पल में नन्हा सा जेन्टलमैन कर देती
गालों को एक हाथ से पकड़
दूसरे से बालों पर कंघा फिराती
मैं गुस्से में तिलमिलाता
दीदी! मैं कोई बच्चा नहीं अब
पर कहाँ चलती मेरी
स्वीकारोक्ति में बाल सँवर जाते
अच्छा चलो पैर आगे करो
मैं मुँह बनाकर जूते की डोरी बँधवाता
फ़िर शुरू होता
खाना खाने का ताण्डव
दीदी हर निवाले के साथ
हिदायतों की घुट्टी देती
टिफ़िन चुक जानी चाहिए
वापस आकर पूरी जाँच टिफ़िन की होती
बड़ा हुआ स्कूल छूटा
और ये नित्य का क्रम भी टूटा
पहले कॉलेज और फ़िर
अब नौकरी की जद्दोज़हद
अब बालों में कंघा फ़िरता तो है
पर वो मासूमियत नहीं आती
जो दीदी लाती थी
जूतों की डोरियाँ तो बंध जाती हैं
पैर संभल भी जाते हैं
पर वो स्नेहिल झरोखे खुले ही रहते हैं
इस आस में की दीदी सब हिस्से
समेट के बाँध देगी
जो बिखरे से रहते हैं
वक़्ती तक़ाज़ों ने निक्कर से
सूट तक ला खड़ा किया
पर अब भी मैं उसका 'बाबू' हूँ
जो बस्ता लादे कल स्कूल के सबक सीखता था
काँधों पे बोझ आज भी है
पर आज शायद ज़िन्दगी पढ़ता है । 


Sunday, December 07, 2014

जीवन : एक दृष्टिकोण


मलिन व मृतप्राय होते वस्त्र सही
पर जीवन और जिजीविषा का अद्भुत स्वरुप
दिन-प्रतिदिन सूरज से संघर्ष होता
तीखे निर्मम प्रकाश से होड़ रहता
अंग-प्रत्यंग दुखाकर तब कहीं
वरदान स्वरुप दो निवाले आते
यहाँ मरू में मरीचिका की आस नहीं
उपवन में जीवन का सुहृद प्रयास है
परिस्थितियाँ मौन कराती परन्तु
हर साँझ अलाव पर बैठकर
उसके ठहाके और गुंजित होते
पौरुष से अर्जित दो सूखी रोटियों
और कुएँ के एक लोटे पानी में बड़ा प्रताप था
क्षुधा तृप्त हो जाती
नभ के असीम चादरों में बस
आनंद सोता होनी-अनहोनी से निर्लिप्त
रजनी एकटक देखती हतप्रभ सी
कि ये कैसा सन्तोष है
कैसी तृप्ति है
और वत्सल हाथों से सर पर हाथ फेरती
वह झट निद्रा को विजित कर लेता
चिंता की रेखाएँ होतीं पर
वह अद्भुत तृप्ति उन्हें जाने कहाँ मिटा देती
अहा! क्या जीवन है उसका
और हम ?
अर्थ के फाँस में बँधने की युक्ति
और प्राप्ति हेतु जीवन भी विस्मृत करना
क्या तुच्छ उद्देश्य हमारे थे
लालसा उसको भी है ऐश्वर्य की
पर नियति ने परिभाषा और दी है
दुःख-कंटकों के घाव असंख्य होते
आँसुओं में सिक्त अनेकों आशाएँ भी होतीं
पर क्षण-क्षण का उल्लास विह्वल करता
तम सा प्रशस्त अन्धकार क्यों न घर में पर
ह्रदय का ओज अप्रतिम रहता
विपन्नता और अभाव लघुता से कम्पित करते
'जिजीविषा' से अपने वह पर सदा अडिग रहता
यही गुरुता है जीवन की 
यही सारांश है जीवन का । 





Monday, December 01, 2014

एक क़तरा : ज़िन्दगी

Picture Courtesy : Google  



                      
ज़िन्दगी
शबनम के शफ़्फ़ाफ़ क़तरे सी
किसी सुबह एक ज़र्द पत्ते पर
यूँ सर रखे कुछ नासाज़ मिली
शायद अर्श से फ़र्श तक के
सफ़र और रास्तों से ख़ाइफ़ थी
जिस्म तप रहा था
आँखें बेसबब बन्द हुई जाती थीं
सब पिछले वाक़यात सिलसिलेवार
किसी किताब के पन्नों के मानिंद
ज़हन पर दस्तक देने लगे
मानो जैसे हश्र का दिन हो
कुछ कहे पर मलाल
कुछ अनकहे पर सवाल
हालातों से हलकान कभी
ख़ुशियों पर इत्मिनान भी कभी
गाहे-बगाहे पाकीज़गी की आज़माईश भी
ख़ुद को खोने-पाने की गुँजाइश भी थी
तभी एक सफ़हे पे निगाह थमी
वो मुड़ा-तुड़ा सा ज़रूर था
हर्फ़ भी जैसे बेतरतीब बिखरे पड़े
किन्हीं ज़हनसीब हाथों के लम्स को
उम्र भर के तरसे हुए थे
शायद कोई क़रीब आते-आते
फ़ासलों में गुम हुआ था
तभी महक अब तलक उन्हीं
सफ़्हों में क़ैद है
ख़ैर,ये कारवाँ कब रुके हैं
जो तब रुकते
एक अन्जाम तो लाज़मी था
वही जो कभी फ़िज़ाओं की शोख़ी से
लरजते पत्तों पर खिलखिलाती बूँदें
वही जो आज ज़मीं पे ज़र्द पड़े
पत्ते पे बेज़ुबान पर शायद सुक़ूँमंद बूँदें
यही तो तक़्मील उस बूँद की थी
फ़लक के अब्र से ज़मीं की तहों तक