Sunday, April 28, 2013

एक मौत


आज ख़यालों के पतवार से
उस सफ़ीने को जब
समन्दर के आग़ोश में उतारा
तो दूर कहीं ढलती शाम के
अक्स में ख़ुद का ही
एक ज़र्द बेबस चेहरा
थमती नब्ज़ों पर
कहीं टकटकी लगाए
गुमसुम सा बैठा था ,
कब तक कुछ बेजान थपकियों भर से
उसकी रंगत सहेजता ,
क़तरा-क़तरा साँस-साँस
एक नूर मद्धिम सी होती जान पड़ती है
अब जब ज़िन्दगी मुझ पर
फ़िकरे कसती
मेरा मखौल उड़ाती है
तब एक मुकम्मल एहसास होता है
कैसे एक संजीदा ख़याल
दम तोड़ता है
और मैं इस 'मौत' का
तमाशबीं खुद होता हूँ ।