Saturday, July 26, 2014

एक ग़ज़ल..

सफ़्हे सुकून-ए-रूह, जिस्म हाशिया हुआ
ग़ज़लों में भी तुम्हारा ग़ैर का न मैं हुआ

हर क़दम पर थी रंजिश,सितम सफ़र भर रहा
दिए को तमाम उम्र जलाती रही दुआ 

फूलों को न बख़्शा जहाँ कलियों को भी मसला
गुलशन का हमनफ़स कोई गुलफ़ाम न हुआ

जब भी मिला साहिल से अन्दाज़ और था
आब-ए-रवाँ का अपना कोई ताउम्र न हुआ

दिन हश्र के भी यूँ सर धुन रहे हो अब
मिल गया है ग़र जवाब फ़िर सवाल क्या हुआ

बदल जाने को अब 'विवेक' रवायत ही जान लो
साया भी सर-ए-राह मुस्तक़िल नहीं हुआ

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