Saturday, June 01, 2013

ख़ामोश मेहरम..!!





कुछ बोलो मत
ख़ामोशी को यूँ रग़ों में
बेपरवाह बहने दो,
बहने दो कि जब तक
क़तरे-क़तरे का जुनून
हर एक नब्ज़ पर काबिज़ है
मैं लबों से फूटे कुछ हर्फ़ों के बजाय
तुम्हारे रूह के तिलिस्म को
तोड़ना चाहता हूँ
खोलना चाहता हूँ
उन तमाम गिरहों को
जो हमारे दर्मियान साँस लेते हैं
भीगना चाहता हूँ
उन बेमौसम बारिशों में
जो क़ुदरत को भी बेमानी कर दें
डूबना चाहता हूँ
उस रोशनी में
जो मेरी बेज़ुबान रातों का नूर है
फ़ासलों के एहसास से
इसे सुफ़ैद रहने दो
एक अल्फाज़ भी निकला
तो रिश्ता मैला हो जाएगा
कुछ बोलो मत
तुम लहर दर लहर
यूँ बढ़ती जाओ
मैं बूँद बूँद घुलकर
उन निशानों पर बहूँगा
जो कभी तुम्हारे थे
तुम कुछ बोलो मत
कुछ मत बोलो ।

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