Monday, December 31, 2012

एक वो रात ऐसी थी..





रुख्सार पर भी उसके मुस्कुराहटें थीं खेलती
हुजूम-ए-अश्क़ से तर दामन था एक वो रात ऐसी थी ।

चिराग-ए-मुर्दा था वहाँ इन्सानियत का अक्स
रोशनी भी थी शर्मसार एक वो रात ऐसी थी ।

एक  बेजान होती चीख़ और वो आह-ए-आतशी
आबरू थी बेहिजाब एक वो रात ऐसी थी ।

बेपरवाह था शहर औ नुक्कड़ों पे कानून के वो बुत
बने सब बेहया तमाशबीं एक वो रात ऐसी थी ।

चन्द एक हंगामों से सही हम ज़मीर के हमज़बाँ हुए
धधकती अब तलक है आग एक वो रात ऐसी थी ।

बाद-ए-मर्ग के भी पाँव कफ़न में है हिल रहा
फ़रिश्ते भी थे कश्मकश में एक वो रात ऐसी थी।

करो एक पल तो एहसास वो ख़लिश-ए-ख़ार  ऐ अहले वतन
हमसे ही कुछ रुख्सत हुआ एक वो रात ऐसी थी ।

11 comments:

  1. Prat, u surprise me everytime i read something written by you... n u've done that once again.... b'ful thoughts shared using the most b' ful n accurate words....

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  2. उस काली रात में ,
    सचमुच इन्सानियत का खून हुआ था ;
    शर्मशार है इन्सानियत ,
    देख के हैवानियत का मन्ज़र ...।
    उस दर्द का ,रूह के तपन का ,
    एहसास क्या करूँ ?
    बस जेहन में बात आते ही ,
    रूह काँप जाती है ।
    उस अँधियारे में ,
    जिस्म की आबरु ही नहीं ,
    रूह का भी कत्ले -आम हुआ था ।
    बेजार है हम ,शर्मिंदा है ।
    कुछ कर न सके तब,
    कम से कम अब तो ,
    कुछ करने की ठाने ।
    फिर से न काली हो, कोई रात
    फिर से न हो कोई, रोती सुबह
    फिर से हो काबिज़ ,अमन -ओ -चमन
    चलो कर ले ये फैसला ........।

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  3. Prateek ji,truly said.....really we forgot huminity,mujhe Great Albert Einstein ka vo last public statement yad aa raha hai, jisme unhone kaha tha-
    "WE APPEAL AS HUMAN BEINGS TO HUMAN BEINGS REMEMBER YOUR HUMANITY AND FORGET THE REST "(1995)

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  4. Mr Prateek, below lines is so touching...
    बेपरवाह था शहर औ नुक्कड़ों पे कानून के वो बुत
    बने सब बेहया तमाशबीं एक वो रात ऐसी थी ।

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  5. Indeed it was a shameful night for us all. Roshni bhi thi sharmsaar...captured it in a single line. Good job.

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  6. nice poem. you write so awesome..:)

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